Skand Puran Ki Mahakal Ki Katha/ स्कन्द पुराण की महाकाल की कथा।



बहुत समय पहले की बात है। माटी नाम का एक बहुत बड़ा शिवभक्त था। माटी के कोई संतान नहीं थी। उसने संतान प्राप्ति के लिए 100 साल तक शिव जी का कठोर व्रत किया था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे संतान का वरदान दिया। कुछ समय बाद माटी की पत्नी गर्भवती हो गई। उसके गर्भवती होने के बाद भी चार साल तक उसकी पत्नी का प्रसव नहीं हुआ तो माटी को बहुत चिंता हुई। उसको पता चला कि उसकी पत्नी के गर्भ का बालक कलमार्ग नामक राक्षस के डर से बाहर ही नहीं निकल रहा है। तब माटी ने सोचा कि क्यों ना गर्भ में स्थित बालक को शिव ज्ञान दे दिया जाए। यह सोचकर उसने बालक को शिव ज्ञान देना शुरू किया जिसकी वजह से बालक को बोध हुआ और वह गर्भ से बाहर निकल आया।

माटी ने कालमार्ग से डरने के कारण अपने पुत्र का नाम कालभिति रखा। कालभिति जन्म से ही शिव जी के परम भक्त थे। बड़ा होते ही कालभिति शिवजी की घोर तपस्या में लग गए। बेल के वृक्ष के नीचे पैर के एक अंगूठे पर खड़े होकर वह सौ वर्ष तक पानी की एक भी बूंद पिए बिना मंत्रो का जाप करते रहे। सौ वर्ष पूरे होने पर एक दिन एक आदमी जल से भरा हुआ एक घड़ा लेकर आया। कालभिति को नमस्कार करने के बाद उसने कहा कि हे राजन! कृपाकर करके आप जल गृहण कीजिए।

कालभिति बोले कि पहले तो आप मुझे यह बताइए कि आप किस वर्ण के हैं? आपका आचार–व्यवहार कैसा है? यह सब जाने बिना मैं जल गृहण नहीं कर सकता। पानी लाने वाला व्यक्ति बोला कि मैं जब अपने माता–पिता को ही नहीं जानता हूं तो फिर अपने वर्ण के बारे में क्या कहूं? आचार–विचार और किसी धर्म से मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा है। कालभिति ने कहा कि मेरे गुरु के अनुसार जिसके कुल का ज्ञान ना हो उसका जल गृहण करने वाला तत्काल कष्ट में पड़ता है। इसलिए हे श्रीमन! मैं आपका लाया हुआ जल गृहण नहीं करूंगा। पानी लाने वाला व्यक्ति बोला कि मुझे तुम्हारी बात पर हंसी आती है। जब सब में भगवान शंकर ही निवास करते हैं तो किसी को भी बुरा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से भगवान शिव जी की निन्दा होती है। यह जल अपवित्र कैसे हुआ? घड़ा मिट्टी से बना है और आग में पकाया गया है उसके बाद जल से भर दिया गया है। अगर मेरे छूने से जल अशुद्ध हो गया? तो अगर मैं अशुद्ध होकर इसी धरती पर हूं तो फिर आप यहां क्यों रहते हैं? आप आकाश में क्यों नहीं रहते? 

उस व्यक्ति की बात सुनकर कालभिति ने कहा कि सभी में शिव ही हैं, सबको शिव मानने वाले नास्तिक लोग खाना छोड़कर मिट्टी क्यों नहीं खाते? राख और धूल क्यों नहीं फांकते? मैं यह नहीं कह रहा कि सब में शिव नहीं हैं। भगवान शिव सब में ही हैं। आप मेरी बात ध्यान से सुनिए। सोने के गहने बहुत तरह के बनते हैं, कुछ शुद्ध सोने के तो कुछ मिलावटी होते हैं। खरे–खोटे सभी आभूषणों में सोना तो है ही। इसी तरह शुद्ध–अशुद्ध सब में भगवान शिव सदा विराजमान हैं। जैसे खोटा सोना खरे सोने के साथ मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार से इस शरीर को भी व्रत, तपस्या और सदाचार के द्वारा शोधित करके शुद्ध बना लेने पर मनुष्य निश्चय ही खरा सोना बनकर स्वर्ग को जाता है।

इसलिए शरीर को खोटी अपवित्र चीजों से बिगाड़ना ठीक नहीं है। जो व्रत और उपवास करके शुद्ध हो गया है। वह भी यदि इस तरह अशुद्ध होने लगे तो थोड़े ही दिनों में पतित हो जाएगा। इसलिए आपका दिया हुआ पानी तो मैं कभी नहीं पियूंगा। कालभिति के ऐसा कहने पर वह व्यक्ति हंसने लगा। उसने दाहिने अंगूठे से जमीन खोदकर एक बहुत बड़ा गड्ढा बना दिया, फिर उस गड्ढे में सारा पानी ढुलका दिया। गड्ढा भर गया लेकिन पानी बचा रह गया। फिर उसने अपने पैर से ही कुरेद कर एक तालाब बना दिया और बचे हुए पानी से उस तालाब को भर दिया। यह अदभुत दृश्य देखकर कालभूति जरा भी नहीं चौंके।

वह व्यक्ति बोला हे ब्राह्मण देव! आप हैं तो मूर्ख, परंतु बातें आप पंडितों जैसी करते हैं। लगता है आपने कभी विद्वानों की बात नहीं सुनी है। कुआं दूसरे का, घड़ा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है। एक पानी पिलाता है और एक पीता है। कालभिति ने विचार किया कि यदि एक कार्य करने में अनेक सहायक हों तो काम करने वाले को मिलने वाला फल बंटकर समान हो जाता है। बात तो इसकी ठीक है। कालभिति ने उस मनुष्य से कहा कि हे राजन ! आपका यह कहना ठीक है कि कुएं और तालाब का पानी पीने में कोई दोष नहीं है। फिर भी आपने तो अपने घड़े के जल से ही इस गड्ढे को भरा है। यह बात सामने से देखकर मैं हरगिज इस जल को नहीं पियूंगा। 

कालभिति के हठ पर वह व्यक्ति हंसता हुआ अंतर्ध्यान हो गया। यह देखकर कालभिति को बड़ा अचरज हुआ। वह सोचने लगा कि यह सब क्या है? उसी समय उस बेल के वृक्ष के नीचे धरती फाड़कर सुन्दर और चमचमाता हुआ शिवलिंग प्रकट हो गया। यह देखकर कालभिति कहने लगे कि जो पाप के काल हैं, जिनके कंठ में काला चिन्ह सुशोभित होता है। जो संसार के कालस्वरूप हैं, उन भगवान की मैं शरण लेता हूं, आप हमें शरण दीजिए। आपको बारम्बार नमस्कार है। कालभिति के इस प्रकार स्तुति करने पर महादेव जी उस लिंग से प्रकट हुए और बोले कि हे ब्राह्मण! तुमने इस तीर्थ में रहकर मेरी जिस प्रकार से आराधना की है, उससे मैं संतुष्ट हूं। अब कालमार्ग से तुम निर्भय रहो। मैं ही मनुष्य रूप में प्रकट हुआ था। मैंने यह गड्ढा और तालाब सब तीर्थों के जल से भरा है। यह परम पवित्र जल मैं तुम्हारे लिए ही लाया था। अब तुम मुझसे कोई भी मनोवांछित वर मांग सकते हो।

भगवान की बात सुनकर कालभिति ने कहा कि हे प्रभु! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो सदा के लिए यहां निवास करें। इस शिवलिंग पर जो भी दान अथवा पूजन किया जाए वह अक्षय हो। आपने मुझे काल से मुक्ति दिलाई है इसलिए यह शिवलिंग महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हो। भगवान् बोले– जो मनुष्य अक्षय तृतीया, शिवरात्रि, श्रावण मास, चतुर्दशी, अष्टमी, सोमवार तथा विशेष पर्व के दिन इस सरोवर में स्नान करने के बाद इस शिवलिंग की पूजा करेगा वह शिव को ही प्राप्त होगा। यहां पर किया गया जप, तप, और रूद्र सब अक्षय होगा। तुम नंदी के साथ मेरे दूसरे द्वारपाल बनोगे। काल पर विजय पाने से तुम महाकाल से नाम से प्रसिद्ध होगे। शीघ्र ही राजर्षि कर्णधम यहां आयेंगे, उन्हें धर्म का उपदेश देकर तुम मेरे लोक में चले आओ। यह कहकर भगवान रूद्र उस लिंग में ही लीन हो गए।




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