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Magh Maas ki Ganesh Chaturthi /Sankat Chauth Vrat Katha.

माघ मास की गणेश चतुर्थी व्रत कथा/संकट चौथ व्रत कथा।

गणेश चतुर्थी/संकट चौथ 

एक बार पार्वती जी ने श्री गणेश जी से पूछा कि हे पुत्र! माघ मास में किन गणेश जी की पूजा करनी चाहिए और पूजन में किस चीज का भोग लगाना चाहिए? इस व्रत में किस प्रकार का आहार लेना चाहिए? इसे कृपा कर मुझे विस्तारपूर्वक बतलाइए। पार्वती जी के इस प्रकार से पूछने पर श्री गणेश जी उत्तर दिया हे माता! माघ मास में भालचंद्र नाम के गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। इस दिन तिल का भोग लगाना चाहिए। तिल के लड्डू बना कर पहले पांच लड्डू देवता को अर्पित करें उसके बाद पांच लड्डू ब्राह्मण को दान करें और उनकी पूजा करके श्रद्धापूर्वक उन्हें दक्षिणा दे। इसके बाद स्वयं भी तिल के लड्डू को प्रसाद के रूप में गृहण करें। अब मैं आपको राजा हरीशचंद्र की कथा सुनाता हूं सो आप ध्यानपुर्वक सुनिए!

गणेश चतुर्थी/संकट चौथ व्रत कथा।

सतयुग में एक राजा थे, उनका नाम हरीशचंद्र था। राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवक्ता, सज्जन और विद्वान ब्राह्मणों के आराधक थे। हे माता! उनके राज्य में अधर्म का नामों निशान नहीं था। उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं था। सारी प्रजा रोग रहित और चिरायु थे। राजा हरीशचंद्र के राज्य में ऋषिशर्मा नाम के एक बहुत ही तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। एक पुत्र को प्राप्त करने के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास के बाद उनकी पत्नी करने लगीं। भिक्षा मांग कर वह विधवा ब्राह्मणी पुत्र का पालन–पोषण करती थी। 

उस ब्राह्मणी ने एक बार माघ मास की संकटा चतुर्थी का व्रत किया। वह ब्राह्मणी सदैव गोबर से गणेश जी की प्रतिमा बनाकर उनका पूजन किया करती थी। हे माता! भिक्षा मांग कर ही उसने तिल के दस लड्डू बनाए। वह जब लड्डू बना रही थी उसी समय उसका पुत्र गणेश जी प्रतिमा अपने गले में बांध कर बाहर खेलने के लिए चला गया। जब वह बालक खेल रहा था उसी समय एक चण्डाल कुम्हार ने उस ब्राह्मणी के पांच साल के बच्चे को जबरदस्ती उठाकर अपने आवां में बैठा दिया और उसके बाद बर्तनों को पकाने के लिए आवां को बन्द करके उसमें आग लगा दी। बहुत समय तक जब बालक वापस नहीं लौटा तो ब्राह्मणी उसको ढूंढने लगी। जब उसके ढूंढने पर बालक नहीं मिला तो वह दुःखी होकर विलाप करने लगी।

वह ब्राह्मणी रोती–बिलखती हुई गणेशजी से प्रार्थना करने लगी कि हे गणेशजी! हाथी के समान मुख वाले! विशाल काया वाले! हे लम्बोदर! हे विनायक! मुझ दुखियारी की रक्षा कीजिए। हे मस्तक पर चंद्रमा को धारण करने वाले! हे दयावंत! मैं अपने पुत्र के वियोग में दुखी हूं आप मेरे पुत्र की रक्षा करें। इस प्रकार से वह ब्राह्मणी आधी रात तक रोती हुई गणेश जी के प्रार्थना करती रही। इसी तरह रोते–बिलखते हुए सुबह हो गई। सुबह होने पर जब वह कुम्हार अपने पके हुए बर्तनों को देखने के आया, जैसे ही उसने आवां खोला तो आश्चर्यचकित रह गया! उसने देखा कि आवां के अन्दर पानी भरा है और उस पानी के बीच में वह बालक खेल रहा है। यह देखकर कुम्हार डर के मारे कांपने लगा। 

वह पापी कुम्हार डर के मारे भागकर राजा के दरबार में पहुंचा और अपने द्वारा किए गए दुष्कर्म को भरी सभा में राजा के सामने बता दिया। कुम्हार ने कहा कि हे महाराज! मैं अपने बुरे कर्म के लिए मृत्यु के योग्य हूं। उसने कहा कि महाराज अपनी पुत्री के विवाह के लिए मैने अनेकों बार मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए आवां लगाया, लेकिन मेरे बर्तन पकते ही नहीं थे। तब मैने एक तांत्रिक से इसकी वजह पूछी तो उसने कहा कि तुम बिना बताए किसी बालक की बलि चढ़ा दो तो तुम्हारा आवां पक जाएगा। फिर जब मैने ब्राह्मणी के बच्चे को बाहर खेलते देखा तो उसे अपने आवां में बैठा दिया और आग लगा दी। इस प्रकार मैं इस घोर पाप को करने के बाद अपने घर आकर आराम से सो गया। 

मैं यह सोचकर खुशी–खुशी आवां खोलने गया कि आज तो मेरे सारे बर्तन पक गए होंगे। परन्तु जब मैंने आवां खोला तो आश्चर्यचकित रह गया कि बच्चा बिलकुल सही–सलामत आवां में बैठा है और मेरे सारे बर्तन पक गए हैं। यह देखकर मैं बहुत डर गया और इसी वजह से आपको इसकी जानकारी देने के लिए आया हूं। कुम्हार की बात सुनकर राजा हरीशचंद्र बहुत हैरान हो गए और कुम्हार के साथ उस बालक को देखने के लिए आवां के पास गए। वहां पहुंचकर बालक को आनंद से खेलते हुए देखकर राजा ने अपने मंत्री से कहा कि यह लड़का किसका है? पता लगाओ कि ये चमत्कार कैसे हुआ है इस आवें में इतना पानी कहां से आया? बालक को ना तो अग्नि ने जलाया और ना ही बालक भूख प्यास से व्याकुल हो रहा है। राजा हरीशचंद्र अपने मंत्री से बात कर रहे थे उसी समय वह ब्राह्मणी रोती–सिसकती हुई वहां पहुंच गई। अपने पुत्र को आवां में बैठा हुआ देखकर वह ब्राह्मणी कुम्हार को कोसने लगी।

जिस तरह से गाय अपने बछड़े को देखकर रंभाती है ठीक उसी प्रकार की दशा इस समय ब्राह्मणी की हो रही थी। वह कुम्हार को कोसती हुई अपने पुत्र को गोद में बैठाकर प्यार करने लगी। उसी समय उसकी नजर राजा हरीशचंद्र पर पड़ी तो वह कांपती हुई राजा हरीशचंद्र के सामने हाथ जोड़कर बैठ गई। राजा हरीशचंद्र ने पूछा कि हे ब्राह्मणी! ये तूने कैसे किया है कि तेरा बेटा अग्नि में बैठकर भी सही सलामत है? क्या तू कोई जादू टोना जानती है? या फिर तूने कोई धर्म का काम किया है? 

राजा हरीशचंद्र की बस सुनकर ब्राह्मणी ने राजा से कहा कि हे महाराज! मैं कोई जादू–टोना नहीं जानती हूं और ना ही मैंने कोई तपस्या की है। ब्राह्मणी ने कहा कि हे महाराज! मैं तो केवल संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत करती हूं। उसी व्रत के प्रभाव से मेरा पुत्र जीवित बच गया है। ब्राह्मणी की बात सुनकर राजा ने अपने राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया कि मेरे राज्य की समस्त जनता इस संकटनाशक गणेश चतुर्थी के व्रत को करें। राजा हरीशचंद्र ने कहा कि हे पतिव्रते! तू धन्य है। उस दिन से नगर के सभी लोग प्रत्येक मास की गणेश चतुर्थी का व्रत करने लगे। 

इस प्रकार से माता पार्वती जी को कथा सुनाकर श्री गणेश जी ने कहा कि हे माता! सभी व्यक्तियों को इस व्रत को करना चाहिए। इस व्रत को करने से मनुष्य की सारी इच्छाएं पूरी होती हैं और वह अपने जीवन में संतान का सुख भोगता है।


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