देवशयनी एकादशी
आषाढ़ शुक्ल की एकादशी को देव सोते हैं इसलिये इसे देवशयनी एकादशी कहते हैं। यह एकादशी आषाढ़ शुक्ल की एकादशी को मनाई जाती है। इसके बाद कार्तिक सुदी एकादशी को देव उठते हैं इसलिये इसे देवउठान कहते हैं। आषाढ़ की इस एकादशी को व्रत करना चाहिए। भगवान का नया बिछौना बिछा कर भगवान को सजाना चाहिए और जागरण करके पूजा करनी चाहिये।
देवशयनी एकादशी व्रत की कथा
सूर्यवंश में मान्धाता नामक प्रसिद्ध सत्यवादी राजा अयोध्या पुरी में राज्य करता था। एक समय उसके राज्य में अकाल पड़ गया। प्रजा दुखी होकर भूखी मरने लगी, हवन आदि शुभ कर्म बन्द हो गये। राजा को कष्ट हुआ। इसी चिंता में वह वन को चल पड़ा ओर अंगिरा ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। वह ऋषि से बोला-"हे सप्तऋषियों में श्रेष्ठ अंगिराजी मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरे राज्य में अकाल पड़ गया है, प्रजा कहती है राजा के पापों से प्रजा को दुख मिलता है। मैंने अपने जीवन में किसी प्रकार कोई पाप नहीं किया। आप दिव्य दृष्टि से देखकर कहो कि अकाल पड़ने का क्या कारण है?" अंगिरा ऋषि बोले- "सतयुग में ब्राह्मणों का वेद पढ़ना और तपस्या करना धर्म है परन्तु आपके राज्य में आजकल एक शूद्र तपस्या कर रहा है। शूद्र को मारने से दोष दूर हो जायेगा, प्रजा सुख पायेगी।" मान्धातार बोले-"मैं उस निरपराध तपस्या करने वाले शूद्र को नहीं मारूंगा। आप इस कष्ट से छूटने का कोई और सरल उपाय बताइये।" ऋषि बोले- "सरल उपाय बताता हूं, भोग तथा मोक्ष देने वाली देवशयनी एकादशी है। इसका विधिपूर्वक व्रत करो। उसके प्रभाव से चातुर्मास तक वर्षा होती रहेगी। इस एकादशी का व्रत सिद्धियों को देने वाला तथा उपद्रवों को शांत करने वाला है।
मुनि की शिक्षा से मान्धाता ने प्रजा सहित पद्मा एकादशी का व्रत किया और कष्ट से छूट गया। इसका माहात्म्य पढ़ने या सुनने से अकाल मृत्यु के भय दूर हो जाते हैं। आज के दिन तुलसी का बीज पृथ्वी या गमले में बोया जाये तो महापुण्य होता है। तुलसी के प्रताप से यमदूत भय खाते हैं। जिनका कण्ठ तुलसी माला से सुशोभित हो उनका जीवन धन्य
समझना चाहिए।