राजा पृथु ने कहा: हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल बताया, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि था तथा उद्यापन की विधि भी बताइए। देवर्षि नारद जी ने कहा: हे राजन्! आप भगवान विष्णु जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं अतः यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी मैं आपको यथाचित विधान बताता हूं।
आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए। ब्रह्ममुहुर्त में उठकर जल का लोटा लेकर गांव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर की दिशा में जाना चाहिए। उसके बाद जो व्यक्ति मुख शुद्ध नहीं करता उसे किसी भी मंत्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अतः दांत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए, और निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए। हे वनस्पत्ये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, संपत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो। इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दातुन लें, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गंध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दंतधावन गृहण करना चाहिए।
प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण को दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली–भांति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित होकर शिवालय में जा कर सभी देवी–देवताओं की अर्घ्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक – पृथक पूजा करके प्रार्थना करके प्रणाम करना चाहिए, उसके बाद भक्तों के साथ मिलकर श्री हरि विष्णु जी का कीर्तन करना चाहिए। मन्दिर में जो गायक श्री हरि विष्णु जी का कीर्तन करने के लिए आए हों उनकी माला, चन्दन, ताम्बुल आदि से पूजन करना चाहिए, क्योंकि देवालयों में भगवान श्री विष्णु जी को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न किया जाता था परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्री विष्णु जी को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।
नारद जी ने राजा पृथु से कहा: हे राजन्! एक बार मैंने भगवान श्री हरि विष्णु जी से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान श्री विष्णु ने कहा: हे नारद! मैं बैकुंठ या योगियों के हृदय में ही निवास करता हूं अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूं। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऐसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती है। नारद जी बोले: शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करनी चाहिए। अढ़हल, कंद, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर जी की पूजा करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं फूलों से उनका पूजन करना चाहिए। पूजा समाप्ति पर भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए।
जैसे: हे सुरेश्वर, हे देव! ना मैं मंत्र जानता हूं, ना क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूं, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें। ऐसी प्रार्थना करने के बाद साष्टांग प्रणाम करके भगवद गुणगान करना चाहिए। भगवान श्री हरि विष्णु जी की कथा सुननी चाहिए। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का पालन करते हैं वह इस जग में अनन्त सुखों को भोगते हुए अन्त में बैकुंठ धाम को जाते हैं।