भगवान श्री कृष्ण ने कहा: हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पिता और पति के मारे जाने का समाचार मिला तो वह जोर–जोर से विलाप करने लगी। हा नाथ! हा पिता! मुझको अकेला छोड़कर तुम लोग कहां चले गए। मैं अकेली स्त्री तुम दोनों के बिना अब क्या करूंगी? अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा। घर में मेरा पालन पोषण कौन करेगा? मैं अकेले कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की रक्षा कौन करेगा। अब मैं कहां जाऊं? मेरे पास तो अब कोई ठिकाना भी नहीं रहा। इस प्रकार विलाप करती हुई गुणवती चक्कर खाकर बेहोश हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ी।
कुछ समय बाद जब गुणवती को होश आया तो वह दोबारा पहले की तरह विलाप करने लगी। कुछ देर के बाद जब वह चैतन्य हुई तो उसे ध्यान आया कि पति और पिता की मृत्यु के बाद उनका क्रियाकर्म भी करना चाहिए। जिससे कि उनकी आत्मा को शान्ति मिल सके, यह विचार कर गुणवती ने अपने घर का सारा सामान दिया और उससे जो धन प्राप्त हुआ उससे उसने अपने पिता और पति का क्रियाकर्म और श्राद्ध आदि कर्म किया। उसके बाद वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु जी की पूजा और भक्ति करने लगी। गुणवती ने मृत्युपर्यन्त तक नियम के साथ सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक मास में उपवास तथा व्रत किए। हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। इनके करने मुक्ति, भक्ति, पुत्र तथा संपत्ति की प्राप्ति होती है।
कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहुर्त में उठकर स्नान करने व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं। ऐसे मनुष्यों ने अगर पाप भी किए होते हैं तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। कार्तिक मास में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु जी के समान हैं। कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वास्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु जी की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। यह सुनकर गुणवती भी प्रतिवर्ष श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णु जी की पूजा करने लगी। हे प्रिये! एक बार की बात है गुणवती को ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर भी हो गई, फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई। गंगा तक तो वह किसी तरह पहुंच गई परन्तु शीत के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी, इस कारण से वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। तब मेरे दूत उसे मेरे धाम में ले आए ( यानि कि भगवान श्री विष्णु जी के धाम)
तत्पश्चात ब्रह्मा जी आदि देवताओं की प्रार्थना पर जब मैने श्री कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आए, जो इस समय यादव हैं। तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे जो इस समय स्त्राजित हैं। पूर्वजन्म में चंद्रशर्मा जो तुम्हारा पति था, वह डाकू है और हे देवी! तू ही वह गुणवती है। कार्तिक मास में व्रत रखने के प्रभाव से ही तू मेरी अर्द्धांगिनी बनी है। पूर्वजन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था वही तुलसी का पौधा इस समय तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रूप में विद्यमान है। उस जन्म में तुमने जो दीपदान किया था उसी के कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है। दीपदान करने की वजह से तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी जी का वास है। पूर्वजन्म में तुमने अपने सभी व्रतों का फल पति स्वरूप विष्णु जी को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी बनी हो। पूर्वजन्म में तुमने नियमपूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत और पूजन किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी भी वियोग नहीं होगा।
इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत और पूजन करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं। दूसरे जप, तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किए गए व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है अर्थात् कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है। इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं।